8/5/10

वो मुलतानी मिट्टी से तख्ती को पोतना

आज ललितजी ने लिखावट पर भीषण खतरा पोस्ट के जरिये शायद सबको प्राथमिक स्कूल के दिनों में पहुंचा दिया। मुझे भी याद आता गया वो सरकण्डे की कलम बनाना और दवात में रोशनाई घोलना। वो दिन में तीन बार तख्ती धोना, और मुलतानी मिट्टी से पोतना। पहले दिन का गृहकार्य या सुलेख उसपर करके ले जाते थे, फिर तफरी (आधी छुट्टी/Recess) में तख्ती को जोहड, कुंयें या नलके (Hand Pump) पर धोते और पोतते। फिर घर आकर फिर से गृहकार्य करने के लिये।  वो गत्ते की स्लेट को इतना धोना की वो फूल जाती थी और पत्थर की स्लेट को थूक से साफ करना। लिखने के लिये स्लेटी (बत्ती) खा भी लेते थे। स्लेटी रंगीन भी आने लगी थी। जिससे स्लेट पर रंग-बिरंगा लिखा जाता था। सहपाठियों से लडाई में भी कारगर हथियार स्लेट और तख्ती। कॉपियों पर पेन्सिल से लिखते थे। पेन्सिल का सिक्का (शीशा/Led) भी खा लेते थे कभी-कभी। शार्पनर से छील-छील कर छिलके के फूल से बनाते थे और जब पेन्सिल छोटी सी रह जाती थी तो उसे सरकंडे में फंसा लेते थे। बाद में पेन्सिल प्लास्टिक और पेन जैसी भी आने लगी। इसमें रिफिल की सुविधा होती थी और छीलना नहीं पडता था। लेकिन इससे लिखने में कोई मजा नहीं आया।   उसके बाद सुलेख लिखने का कार्य होल्डर से किया जाने लगा। स्याही की टिकिया आने लगी थी। फिर फाऊंटेन पेन और Chelpark की Ink आ गई। फांऊटेन पेन की कम्पनियों के नाम भी याद नहीं अब तो। एक पायलेट पेन भी आया था। लिखाई दिखने में कुछ-कुछ फांऊटेन जैसी ही होती थी पर सुन्दर नहीं। इसमें मजा नहीं आया। महंगा भी होता था और रिफिल भी नहीं हो सकता था। इसकी निब सीधी सुई या पिन जैसी होती थी।  बस लिखने पर जोर ज्यादा रहता था। पाठ लिखते-लिखते कब याद हो जाता था, पता ही नहीं चलता था। आज भी ऊंगली में पडी गांठ देखकर बच्चे पूछते हैं-"यह क्या है"। और मुझे यह देखकर अपनी सुन्दर लिखाई में लिखी कापियां याद आ जाती हैं। घर में कोई रिश्तेदार आने पर वही कॉपी बाहर जानबूझ कर छोडता था जिसमें सबसे सुन्दर लिखाई होती थी। फांऊटेन पेन  दुश्मनी निकालने के भी काम आता था। बस खोलकर झटके से छिडक दिया सामने वाले की वर्दी पर:) हा-हा-हा। बाद में इस भागम-भाग और त्वरित लेखन के लिये जो बॉलपेन से लिखना शुरू किया तो आज तक इसी से लिख रहे हैं। कारण सिर्फ त्वरित लेखन और सुविधा।

14 comments:


  1. अब तो नेट का जमान है, सीधे ऑललाइन लिखिए और सुरक्षित रखने का कोई झंझट ही नहीं।

    …………..
    किस तरह अश्लील है कविता...

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  2. इस तरह की पोस्‍टों से बचपन तो याद आना ही है .. हमलोग चाचाजी के द्वारा प्रयोग किए घर में पडे पुराने खराब पेनों को उठाते .. उसके पार्ट पुर्जे अलग अलग कर गरम पानी में खौलाकर धोते .. बाजार से दर्जन के हिसाब से अलग से निब खरीदते .. और सबको अच्‍छी तरह फिट करके बहुत सारे पेन बनाते .. पूरे आंगन में बहुत भाई बहन थे .. सब को वे पेन बांटे जाते .. भले ही प्रयोग करने के वक्‍त उससे स्‍याही लिक करती .. ऊंगली और कागज गंदे हो जाते .. पर हमलोग इसको फेक नहीं पाते थे!!

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  3. आपके जैसा ही बचपन लगभग सभी लोगो का बीता होगा | एक फर्क जरूर आया है की आज कल स्याही के पेन बाजार से गायब हो गए है और अगर मिल भी जाते है तो कभी उनकी निब नहीं मिलती तो कभी स्याही नहीं मिलती है | बचपन में यह पता नहीं चल पाता था की पेन लीक क्यों करता है आज पता चल पाया तो हमारे पास लिखने के लिए ना कागज़ है और न ही पेन है |

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  4. अमित भाई बहुत सुंदर यादे याद दिला दी आप ने. लेकिन आप तो हम से काफ़ी बाद आये ओर यादे सारी हमारे वाली ही है, तख्ती का एक ओर भी लाभ था... कभी कभी उस से धुनाई भी करते ओर करवाते थे, आज तो कई बार पढी आप की पोस्ट. धन्यवाद

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  5. आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम , गुज़रा ज़माना बचपन का ---।

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  6. बहुत सही लिखा आपने. हमने और भाटिया जी ने तो इस तख्ती से कईयों के सर फ़ोडे थे. लठ्ठ से भी ज्यादा कारगर हथियार था. एक बार एक बडी क्लास के लडके से झगडा होगया. झगडे में सामने वाला ज्यादा ज्यादा तगडा था. भाटिया जी तख्ती लेके उस पर पिल पडे पर वो काबू में नही आरहा था. मैने अपना होल्डर बस्ते (स्कूल बैग कपडे वाला) से निकाला और उसकी निब की तरफ़ से उस छोरे के दे मारा...और आगे क्या हुआ होगा? ये बताने की नही सोचने की बात है...हमने तो इन सब चीजों का उपयोग हथियार के बतौर ही किया, बजाय लिखने पढने के.

    रामराम

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  7. अरे यह तो हम बुड्ढ़ों के जमाने की बात है!

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  8. @ शास्त्री जी,
    सही कह रहे हो। यह हम बुड्ढों के जमाने की भी बात है।
    अमित जी, अपन को तो एक कविता याद आती है जिसे हम रोजाना तख्ती पर लिखते थे:
    रण बीच चौकडी भर-भर कर,
    चेतक बन गया निराला था।
    राणा प्रताप के घोडे से,
    पड गया हवा का पाला था॥

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  9. वाह भाई अमित जी,अड़े भी महफ़िल सजा राक्खी सै।
    आज तो सारां की पुराणी यादां के पन्ने खुलगे।
    बहोत बढिया

    राम राम

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  10. चेलपार्क की बात ही अलग थी... और है भी .... मैं आज भी चाइनीज़ पेन का इस्तेमाल करता हूँ और उसमें चेलपार्क इंक ही डालता हूँ....

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  12. बचपन का वो दौर तो हमें भी याद है भाटिया जी ..... कमाल के दिन थे वो भी ...

    वो तख़्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना
    नही भूल पाता कभी वो भुलाए

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नमस्कार, आप सब का स्वागत है। एक सूचना आप सब के लिये जिस पोस्ट पर आप टिपण्णी दे रहे हैं, अगर यह पोस्ट चार दिन से ज्यादा पुरानी है तो मॉडरेशन चालू हे, और इसे जल्द ही प्रकाशित किया जायेगा। नयी पोस्ट पर कोई मॉडरेशन नही है। आप का धन्यवाद, टिपण्णी देने के लिये****हुरा हुरा.... आज कल माडरेशन नही हे******

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मुझे शिकायत है !!!

मुझे शिकायत है !!!
उन्होंने ईश्वर से डरना छोड़ दिया है , जो भ्रूण हत्या के दोषी हैं। जिन्हें कन्या नहीं चाहिए, उन्हें बहू भी मत दीजिये।